खरपतवार एवं पौधों को लगने वाली बीमारियाँ जो आपके किचन गार्डन को नष्ट कर सकती हैं
खरपतवार एवं पौधों को लगने वाली बीमारियाँ जो आपके किचन गार्डन को नष्ट कर सकती हैं
भिन्न-भिन्न स्थानों पर खरपतवारों की भिन्न-भिन्न किस्में पायी जाती हैं, लेकिन कुछ किस्में ऐसी भी हैं जो अधिकांशतः मैदानी क्षेत्रों में ही व्यापक रूप से पैदा होती हैं।
सफेद दूदी (Euphorbia hirta) लाल दूदी (Euphorbias microphylla), पीली कटेली (Argimone), नील (Indigofera) ऐमरेन्थस (Armeranthus), बुरहाविया, गोखरू (Tribulus) आदि इसी प्रकार की खरपतवार हैं। इनके अतिरिक्त एक प्रकार की लम्बी पत्तियों वाली घास भी खरपतवार के रूप में क्यारियों में पैदा हो जाती है
डैम्पिग आफ-इस बीमारी से ग्रस्त पौधे अकरण के ठीक बाद या फिर कुछ दिनों के बाद मर जाते हैं। यह रोग अधिक पानी की नमी के कारण फैलता है। इस रोग की रोकथाम के लिए बोये जाने वाले बीजों को एग्रोसन या सेरेसन जैसे फफूंदनाशक रसायन में धोने के बाद ही बोना चाहिए। जब बीजों में अंकुरण समाप्त हो जाए और और नन्हें-नन्हें पौधे बाहर निकल आएं तब उन्हें बेसिकोल के एक प्रतिशत घोल से उपचरित करना चाहिए। यह रोग बैंगन, टमाटर व भिडी आदि में व्यापक रूप से पाया जाता है।
पत्तियों पर धब्बे-फफूंद से ग्रस्त पत्तियों पर कभी-कभी हल्के भूरे रंग के कुछ धब्बे भी दिखलाई देते हैं। इस प्रकार के धब्बों से पत्तियों का हरापन कम हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप उनमें पत्तियों को हरा रखने वाले रसायन की मात्रा कम हो जाती है और पत्तियां कम मात्रा में भोजन बना पाती हैं। यदि यह बीमारी लम्बे समय तक निरन्तर चलती रहती है तो छोटे-छोटे हरे धब्बे मिलकर एक बड़े धब्बे का रूप ले लेते हैं। ऐसा होने पर पत्तियां भोजन-निर्माण करने में असमर्थ रहती हैं और पेड़ से टूटकर गिर जाती हैं। इस बीमारी की रोकथाम प्रिनाक्स फफंदनाशक (Weedicide) के 32 प्रतिशत घोल के छिड़काव से की जा सकती है।
उकटा रोग--इस रोग से ग्रस्त पौधों के ऊपरी भाग की पत्तियां पहले पीली पड़ने लगती हैं और धीरे-धीरे सूख कर नीचे गिर जाती हैं। यदि बीमारी का फैलाव अधिक होता है तो पूरे पौधे के नष्ट हो जाने की भी संभावना रहती है। इस रोग से ग्रस्त पौधों पर फल नहीं लग पाते। इस रोग की रोकथाम के लिए क्यारी में 4-5 वर्षों तक फसल नहीं लगानी चाहिए।
झुलसा रोग-इस बीमारी से ग्रस्त पौधों के सभी भागों--पत्तियां. तने, फल आदि-पर भूरे काले रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। सामान्यतः यह रोग अधिक सरदी व आर्द्रतायुक्त दिनों में ही उत्पन्न होता है । इसकी रोकथाम के लिए डायमेन-Z, 78 के 0.005 प्रतिशत घोल को ग्रस्त भाग पर 10-20 दिनों के अन्तराल में छिड़कते रहना चाहिए
टिक्का रोग--यह रोग मूंगफली के लिए बहुत ही खतरनाक होता है। इस रोग से ग्रस्त पौधों में मूंगफली का निर्माण ही नहीं हो पाता । आठ सप्ताह की आयु वाले पौधों में इस रोग के लक्षण दिखने आरम्भ हो जाते हैं। रोग की आरम्भिक अवस्था में पत्तियों पर काले, भूरे व गोल धब्बे दिखाई देने लगते हैं, लेकिन कुछ दिनों बाद ही रोगग्रस्त पत्तियां सूखकर गिरने लगती हैं। यह रोग बीजों को बोने से फैलता है।
मुरझान रोग-यह भी पत्तियों का ही रोग है। इस रोग के आरम्भ में पत्तियां धीरे-धीरे पीली पड़ने लगती हैं और अन्त में मुरझा कर तने से अलग हो जाती हैं। इसके कारण तने में काली-काली धारियां भी देखी जा सकती हैं। यह बीमारी रोगग्रस्त मिट्टी द्वारा फैलती है।
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